Sunday, 27 January 2019

Outrageous... Yet we are Happy!



नमस्कार मित्रजनों,
दुनिया अलग अलग  तरह के अजूबो से भरी हुई है । हमारे देश में भी कई तरह के अजूबे मौज़ूद हैं, मसलन ताज महल, जो कि  मानव निर्मित सात अजूबों में सम्मिलित है । गिनीस बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स , लिम्का बुक ऑफ़ रिकार्ड्स भरी हुई है अजीबो -गरीब कारनामों से और उनको करने वाले लोगों के नामों तथा वर्णन से । मगर बड़े आश्चर्य की बात है कि इन अजूबों की फेहरिस्त कहीं भी बड़े बड़े देश चलाने वाली सरकारों का जिक्र भी नहीं होता । सरकारें क्या अजूबा होती हैं? यदि नहीं तो ज़रा सोचिये, क्या ऐसा संभव है कि नौकर मालिक से ज्यादा रेट पर टैक्स भरता हो, माने जो तनख्वाह दे रहा है उसका टैक्स स्लैब (Tax Slab) कम है और जो बेचारा तनख्वाह ले रहा है उसको अधिक रेट पर टैक्स भरना पड़ रहा है ?
और अगर ऐसा हो रहा है तो क्या यह किसी अजूबे से कम है ? अगर अजूबा नहीं तो " बहुत नाइंसाफी है ये " , बसंती फिर भी इन  ...... के सामने नाचने को मज़बूर है, क्योंकि टीडीएस कटे बिना सैलरी मिलेगी नहीं और टैक्स का रेट तो सरकार ही तय करेगी ।  तो आपके और हमारे पास चारा ही क्या है , सरकारी बीन पर नाचने के सिवाय ?

अभी भी कुछ महानुभावों को ऊपर लिखे हुए तथ्य पर  विश्वास नहीं हो रहा होगा । उनकी मानसिक शांति के लिए मैं यह बता दूँ कि Oxfam's वेल्थ रिपोर्ट २०१८( Oxfam's Welath Report 2018)  के अनुसार , दुनिया के तीसरे सबसे अमीर व्यक्ति , वारेन बुफे (Warren Buffet)  अपने सेक्रेटरी के मुकाबले कम रेट पर टैक्स देते हैं। इस रिपोर्ट में और भी कई चौंका देने वाले तथ्य हैं , इनमें से कुछ का जिक्र तो मैं यहाँ करने वाला हूँ पर जिन लोगों को अधिक जानकारी लेने की इक्छा हो तो वो नीचे दिए लिंक का प्रयोग कर पूरी रिपोर्ट पढ़ सकते हैं ।

2018 में किए गए एक सर्वे के अनुसार जो (PTI) PRESS TRUST OF INDIA ने प्रकाशित किया है, 89% भारतीय अन्य चीजों के अलावा अपने काम और अपनी आर्थिक स्तिथि को लेकर दबाव में रहते हैं जो कि वैश्विक स्तर से कहीं ज्यादा है. इस सर्वेक्षण में सामने आए और तथ्यों को जानने के लिए नीचे दिए गए लिंक का उपयोग किया जा सकता है...
https://www.financialexpress.com



Oxfam की Wealth Report में इसके अतिरिक्त भी कुछ और तथ्य हैं जिनका जानना हमारे लिए ज़रूरी नहीं तो उपयोगी तो अवश्य हो सकता है... जैसे कि,
संसार में हर दूसरे दिन एक व्यक्ति खरबपतियों की फेहरिस्त में शामिल हो जाता है... हर दूसरे दिन. अविश्वसनीय लगता है, मगर ऐसा हुआ है 2018 में. इस संदर्भ में अब अपनी स्तिथि पर भी गौर कर लें, क्या खास फर्क आया है हमारी जिंदगी में  पिछ्ले 12 महीनों के दौरान? यदि कुछ नहीं तो कहाँ जा रहा है इतना पैसा?    
दुनिया के 3.8 खरब (Billion) लोग जो कि लगभग 50 प्रतिशत हैं हमारी पूरी आबादी का, उनके पास जितनी संपत्ति है उतनी संपत्ति सिर्फ़ और सिर्फ़ केवल 26 सबसे अमीर आदमियों की सम्पदा के बराबर है.. 2017 में यह आंकड़ा 43 का था, यानि कि, विश्व के अमीर, और अमीर होते जा रहे हैं और बाकी की जनता टैक्स चुका रही है..
भारत में तो यह आंकड़ा और भी डराने वाला है क्योकि हमारे देश में केवल 9 अमीर लोगों के पास इतनी संपत्ति है जितनी कि पिछड़े हुए 50% देशवासियों के पास है ।
क्यों है इतनी आर्थिक विषमता पूरी दुनिया में ?  क्यों दुनिया की सभी सरकारों को यह दिखाई नहीं पड़ता कि इन अमीर लोगों की सम्पदा पर केवल 0.5% टैक्स लगाने से हर साल 26 करोड़ से अधिक बच्चों को स्कूल भेजा जा सकता है और 33 लाख से अधिक लोगों की जान बचाई जा सकती है जो अच्छे इलाज़ के आभाव में दम तोड़ देते हैं...
 Move Humanity Campaign नामक संस्था का मानना है कि यदि इस सम्पदा पर  1% टैक्स लगा दिया जाए तो दुनिया की सरकारों को $100 bn सालाना की अतिरिक्त आमदनी हो सकती है जिसका उपयोग उन 3.8 खरब (3.8 Billion) लोगों के जीवन में बे‍हतर परिस्तिथि उपलब्ध कराने में किया जा सकता है ।
चलिए माना कि  सरकारें अपना काम सुचारु रूप से नहीं कर रहीं हैं पर ऐसा क्या है, जिससे संसार के अमीर और अमीर होते जा रहें हैं और आम आदमी की सम्पदा ज्यों की त्यों बनी  हुई है, या  कम हो रही है ? अगर रोबर्ट कियोसाकि (Robert Kiyosaki) की मानें तो इसका कारण छिपा है हमारी गलत धारणाओं में , जो हमनें पैसे के प्रति बना रखीं है और दूसरा सरकार की नीतियां जिनसे बिज़नेसमेन और हर उस आदमी को टैक्स से बचने की सहूलियतें
हासिल हैं जिनकी आमदनी के कई ज़रिये हैं या कम से कम वह नौकरी पेशा नहीं है जो केवल तनख्वाह पर निर्भर रहते हैं । राबर्ट कियोसाकि के अनुसार हमारी आमदनी (इनकम) के तीन उपयोग हो सकते हैं
1. वह खर्चों के रूप में उपभोग की जा सकती है
2. वह हमारी देयता (liability) को चुकाने के काम आ सकती है
3. या फिर वह हमारी संपत्ति को बढ़ाने में  काम आ सकती है

इन तीनों को यदि एक डायग्राम (Diagram) के तौर पर प्रस्तुत किया जाये तो वो कुछ इस तरह दिखेगा -


ये चित्रण बड़ी आसानी से समझा रहा है कि किस तरह लोगों की अधिकांश कमाई सिर्फ उनके खर्चों को पूरा करने में निकल जाती है या फिर उनकी liabilities को पूरा करने में इस्तमाल हो जाती है । इसके ठीक विपरीत , अमीर लोग अपनी कमाई से सम्पदा (एसेट) जोड़ते हैं और फिर वोही एसेट उनकी कमाई अथवा आमदनी को बढ़ाते जाते हैं  । कमाई से  एसेट , एसेट से फिर कमाई और कमाई से फिर एसेट । जब ये  चक्र बारम्बार घूमता रहता है तो अमीर लोग और भी अमीर होते जाते हैं । एक और गौरतलब चीज यह है कि अमीरों और आम आदमी की सोच में इसका भी बड़ा अंतर होता है कि वो किसे एसेट मानते हैं  और  किसे लायबिलिटी ? यह अपने आप मैं एक अलग चर्चा का विषय है , जो हम लोग किसी और समय के लिए सूचित  कर के रखते हैं ।

इसके अलावा अमीर लोग कॉर्पोरेशंस (Corporation) या ट्रस्ट (Trust) का गठन कर लेते हैं जिससे की उन के पैसों के बहाव का पैटर्न कुछ इस तरह होता है ...

जब कि बाकी की जनता का पैटर्न रहता है ...


इन्ही दोनों वजहों से आर्थिक विषमता एक कड़वी सच्चाई बनी हुई है और दूसरी कड़वी सच्चाई यह है कि दुनिया भर की सरकारें इस विषय में कुछ करने की इच्छुक बिलकुल नहीं लगती हैं , मतलब अगर हमें इस चक्रव्यूह से निकलना है तो खुद ही प्रयास करना पड़ेगा । डगर आसान तो नहीं है मगर हमारे पास विकल्प भी नहीं हैं ... आइये मिल कर सोचते हैं किस तरह हम अपने चारों  तरफ बने हुए इस जाल से बाहर निकल सकते हैं , यदि आपको कोई उपाय सूझे तो कमेंट कर के हम सभी के साथ साझा अवश्य करें ।
मेरे विचारों को मैं अगली किसी पोस्ट में अवश्य शेयर करूंगा ,  तब तक के  लिए  आवजो और राज़ी रहेजो ....

Monday, 21 January 2019

Prisoners of Mindset, still Happy

क्या आप कभी किसी दूसरे के की हुई गलती की सज़ा उठाने के लिए तैयार होंगे?? सामान्यतः नहीं | पर संभव है कि किसी इमोशनल स्थिति में आप ऎसा करने को तैयार भी हो जाएं तो भी क्या आप ऐसी स्थिति में आनंद का अनुभव करेंगे ??
यदि आपका, ऊपर पूछे गए प्रश्न का उत्तर नकारात्मक है, तो दोबारा सोचिए | संसार की 95% संपन्नता सिर्फ 5% लोगों के पास है, बाकी के 5% धन में ही बचे हुए 95% जनसंख्या की भागीदारी है | क्या ऐसा सिस्टम किसी ने सोच के बनाया है? क्या हम सब खुश हैं, अपने अभावों के साथ? ज़ाहिर तौर पर हम खुश ही लगते हैं या ऐसा प्रदर्शित करते हैं, मगर क्यों? शायद ऐसा इसलिए कि हमारी सफलता या असफलता के पैमाने हमने स्वयं निर्धारित नहीं किए है |हमने समाज के मानकों को ही अंतरंग (internalise) कर लिया है |अगर हमारे पास एक अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी है, एक ईएमआई (EMI) पर लिया हुआ घर है, एक ईएमआई (EMI) पर ली हुई गाड़ी है तो हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा बन जाती है और उसी प्रतिष्ठा को हम अपनी सफलता मान लेते हैं| और क्यों नहीं माने, हमारी मूल्य व्यवस्था (Value System) में सफलता की यही परिभाषा अंकित की गयी है|पर क्या हमारी सफलता में, हमारी खुशियों का, हमारे सपनों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए?? यदि हां, तो फिर सभी के लिए सफलता की एक ही परिभाषा कैसे हो सकती है, क्योंकि हम सभी के सपने तो अलग अलग होते हैं |और फिर उन लाखों, करोड़ों लोगो का क्या, जो अभी तक इन माप दंडों पे खरे नहीं उतर पाए हैं, क्या वो 'असफलता' के चलते फिरते प्रतीक हैं, और यदि हैं तो क्या ये केवल उन्ही का दोष है, उन्ही का अपराध है??
भारत में शिक्षा व्यवस्था का अधारभूत ढांचा है, सन 1835 में पारित Lord Macaulay का English Education Act . इस कानून की आत्मा में जो विचार था वह निम्न लिखित है...
 There is a need to produce - by English-language higher education -" a class of persons, Indian in blood and colour, but English in taste, in opinions, in morals and in intellect" who could in their turn develop the tools to transmit Western learning in the vernacular languages of India.

यानी कि शिक्षा का बुनियादी उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ़ एक ऐसा तबका पैदा करना था जो हुक्म बजा लाने में ही अपनी सार्थकता समझता हो और इसी मानसिकता से हम लोग आज तक ग्रसित हैं | एक स्वतंत्र जीवन के बदले हममें से अधिकांश लोग किसी की नौकरी बजा लाने में ही ज्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं और धीरे धीरे, हम गिरवी रख देते हैं अपने इरादों, अपने सपनों को तनख्वाह से मिलने वाली सुरक्षा के हाथों | इसीलिए शायद Nassim Nicholas Taleb ने कहा है कि... 

'The three most harmful addictions are heroin, carbohydrates, and a monthly pay cheque.'



हमें आदत पड़ जाती है मासिक तनख्वाह की क्योंकि नौकरी हमारी कई तरह की मानसिकता का पोषण करती है, जो समाज, हमारा शिक्षण, हमारा परिवेश हमारे अंदर बचपन से बैठाता जा रहा है |हम सुरक्षित महसूस करते हैं क्योंकि हम भीड़ के साथ होते हैं, हम समाज के ढांचे के अनुरूप होते हैं|
ऐसी परिस्थिति को किसी शायर ने कुछ इस तरह बयान किया है.... ' ना होते हम तो ज़माने में कमी कौन सी होती, हज़ारों हम से जीते हैं, लहू के अश्क पीते पीते || 

HDFC Life द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 0-100 के पैमाने पर , Financial Freedom के मामले में भारतीय जनमानस का स्कोर सिर्फ 58.3 है | तो इसका क्या अर्थ है, इसका मतलब है यह है कि Financial Freedom अभी तक हमारी प्राथमिकताओं में बहुत पीछे है| हममें से अधिकांश लोग इसी गलतफहमी में जी रहे हैं कि अगर सारी उम्र ईमानदारी से नौकरी की तो अंत तक इतना कोष इकट्ठा कर लेंगे कि रिटायरमेंट असानी से कट जायेगा | ऐसे भोले भगत ज्यादातर मामलों में Inflation यानि मुद्रास्फीति को अथवा आकस्मिक खर्चों को अपने प्लान में सम्मिलित करना भूल जाते हैं |मगर इससे भी ख़तरनाक भूल होती है, नौकरी से होने वाली कमाई को स्थायी मान लेना |देखिए अपने चारों तरफ और जानिए किस तरह से 'जॉब सेक्योरिटी' (Job Security) के नाम पर हज़ारों, लाखों लोग छले गए हैं और छले जा रहे हैं | Acquisitions & Mergers के is ज़माने में lay offs एक वास्तविकता है जिसका सामना एक बहुत बड़ी संख्या में लोगों को करना पड़ रहा है | इसके अलावा पर profits के लिए बढ़ते दबाव के कारण down sizing भी एक सामान्य कॉर्पोरेट एक्सरसाइज (Corporate Exercise) बन चुकी है | इससे भी बढ़ कर हतोत्साहित करने वाली बात यह है कि जो लोग नौकरी में हैं, उन पर भी उसे बचाए रखने का भारी दबाव है | इन परिस्थितियों में ज़िन्दगी जी जा रही है या काटी जा रही है... ज़रा सोचिए |

Fallacy of Job Satisfaction
किसको जिम्मेवार ठहराया जा सकता है, इतनी बड़ी संख्या में लोगों को पीड़ा पहुंचाने के लिए... मेरा मानना है, हमारी परवरिश, हमारी शिक्षा व्यवस्था द्वारा पैदा किए गए 'Employee Mindset' को इसका काफ़ी बड़ा श्रेय दिया जा सकता है | पैसे के प्रति पैदा की गयीं हमारी गलत धारणाएं, गलत भावनाओं ने हमें पैसे के प्रति इतना संवेदनशील बना दिया है कि हम पैसे के विषय में कोई खतरा उठाने के लिए तैयार नहीं होते हैं और भोगते रहते हैं, ज़िन्दगी भर उस अपराध की सज़ा जो हमने कभी किया ही नहीं..... हमारे पाठ्यक्रम, हमारे घरों में होने वाले विचार विमर्श, हमारे मित्र, उनके मित्र, समाज... सभी जगह, एक सुर में इसी सोच को अनुमोदित किया जाता है | हम अपने बच्चे को सचिन तेंदुलकर तो बनाना चाहते हैं पर उसे खेलने नहीं जाने देना चाहते कि कहीं उसकी पढ़ाई पे असर न पड़ जाए, उसके नंबर न कम आ जाएं क्योंकि कम नम्बरों से उसकी Employability पर असर पड़ता है | अपनी असफलताओं को महत्वाकांक्षा का जामा पहना कर, जुआ डाल देते हैं हम अपने बच्चों के कंधों पर, कोल्हू के बैलों की और एक पीढ़ी आगे बढ़ाने को |

मेरे इन विचारों से आप कितना सहमत, कितना असहमत हैं, comments लिख कर मुझे जरूर अवगत कराइयेगा |मुझे आपके अनुभव और विचारों से सीख कर अत्यंत प्रसन्नता होगी |

Thursday, 17 January 2019

Life - a saga of compromises

बचपन में हम सभी के सपने होते हैं , मेरे भी थे ... एक संपन्न , खुशहाल जिंदगी जीने के , अपने मनपसंद खिलौने लेने के , दुनिया की सैर करने के और सबसे बढ़ कर अपने परिवार के लिए सभी प्रकार के संसाधन उपलभ्ध करने के / सपनों  के घोड़ो के उस ज़माने में लगाम नहीं होती / पर जैसे जैसे हमारी उम्र बढ़ती है , जीवन की वास्तविकता से हमारा परिचय होता है , हमें अपनी सीमाओं का एहसास होता है और शुरू होता है जिंदगी के साथ समझौता करने का सिलसिला ...
समझौतों की इस कतार में सबसे उल्लेखनीय होता है , अपने सपनों को गिरवी रख कर आर्थिक सुरक्षा की खातिर , किसी और के सपनों को पूरा करने के लिए एक अदद  नौकरी का जुआ अपने कन्धों पर उठा लेना और बस फिर किसी कोल्हू के बैल की तरह जुट जाना , कभी गाड़ी कभी घर,  कभी वकेशंस( Vacations ) के लिए हुए कर्ज़ों की EMI भरने के लिए / जीवन की इस आपा -धापी में , हमें बचपन में देखे हुए सपनों की कभी याद भी नहीं आती बल्कि हम अपनी सीमाओं के  अंदर ही सपने देखने की आदत डाल लेते हैं  या जो प्राप्त कर लेते हैं उसे ही सपना मान लेते हैं / आज दो गाड़ियां होने के बाद मैं यह मान लेता हूँ , मेरे सपने पूरे हो गए क्योंकि मैंने तो एक ही गाड़ी का सपना देखा था/ पर मैं यह भूल जाता हूँ कि मेरा पहला सपना मेरी उस समय की  परिस्थितियों का द्योतक था और उसका मेरी क्षमताओं से कोई सम्बन्ध नहीं है / समझौतों की प्रवृत्ति हमें अपने सपनों को घटाने का अभ्यस्थ कर देती है और हमें बुरा भी नहीं लगता / स्वर्ग और नरक का अंतर समझाते हुए एक बार ओशो ने कहा था , यदि जीवन में हमारी उपलब्धियां हमारी छमताओं  के  अनुकूल हैं तो वह अवस्था स्वर्गिक है और यदि कहीं उपलब्धियों और छमताओं के बीच महत्वपूर्ण अंतर है  तो वह स्तिथि ही नारकीय है / कहीं ऐसा  तो नहीं , हमने अपने नरक को ही स्वर्ग मान लिया है ... जरूरत है तो एक आत्म निरिक्षण की /

इसी तरह का विरोधाभास हमें दिखाई पड़ता है जब हम कुछ चीजों को अपनी संपत्ति समझ कर सहेजते हैं और वह वास्तव में होती लायबिलिटी हैं / वित्तीय संसार में केवल उन ही चीजों को संपत्ति मानते हैं जिन से हमें नियमित आमदनी होती हो बाकी सभी कुछ,  खास कर के वो चीजें जिनसे कैश वास्तव में हमारे खातों में से निकल जाता है एक देनदारी (लायबिलिटी ) ही है / इस सन्दर्भ में अब जरा सोचिये ,आपका घर  , आपकी गाड़ी जिसकी आप हर महीने किश्तें  भरते हैं , आपकी संपत्ति है या आपकी देयता ????

इसी तरह के और भी कुछ कॉन्सेप्ट्स (संकल्पनाओं ) पर हम लोग चर्चा करेंगे और जानेंगे कि किस तरह से हम Financially Free हो कर उन सभी सपनों को  पूरा कर सकते हैं जिनके साथ हमने अपना जीवन शुरू किया था / इस लिंक को मार्क कर लें क्योकि आप और मैं जीवन को और भी सफल और सार्थक करने के विषय पे चर्चा करेंगे / जब तक हम दुबारा मिलें , तब तक के लिए आप सभी को मेरी शुभकामनायें और अभिवादन ...