क्या आप कभी किसी दूसरे के की हुई गलती की सज़ा उठाने के लिए तैयार होंगे?? सामान्यतः नहीं | पर संभव है कि किसी इमोशनल स्थिति में आप ऎसा करने को तैयार भी हो जाएं तो भी क्या आप ऐसी स्थिति में आनंद का अनुभव करेंगे ??
यदि आपका, ऊपर पूछे गए प्रश्न का उत्तर नकारात्मक है, तो दोबारा सोचिए | संसार की 95% संपन्नता सिर्फ 5% लोगों के पास है, बाकी के 5% धन में ही बचे हुए 95% जनसंख्या की भागीदारी है | क्या ऐसा सिस्टम किसी ने सोच के बनाया है? क्या हम सब खुश हैं, अपने अभावों के साथ? ज़ाहिर तौर पर हम खुश ही लगते हैं या ऐसा प्रदर्शित करते हैं, मगर क्यों? शायद ऐसा इसलिए कि हमारी सफलता या असफलता के पैमाने हमने स्वयं निर्धारित नहीं किए है |हमने समाज के मानकों को ही अंतरंग (internalise) कर लिया है |अगर हमारे पास एक अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी है, एक ईएमआई (EMI) पर लिया हुआ घर है, एक ईएमआई (EMI) पर ली हुई गाड़ी है तो हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा बन जाती है और उसी प्रतिष्ठा को हम अपनी सफलता मान लेते हैं| और क्यों नहीं माने, हमारी मूल्य व्यवस्था (Value System) में सफलता की यही परिभाषा अंकित की गयी है|पर क्या हमारी सफलता में, हमारी खुशियों का, हमारे सपनों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए?? यदि हां, तो फिर सभी के लिए सफलता की एक ही परिभाषा कैसे हो सकती है, क्योंकि हम सभी के सपने तो अलग अलग होते हैं |और फिर उन लाखों, करोड़ों लोगो का क्या, जो अभी तक इन माप दंडों पे खरे नहीं उतर पाए हैं, क्या वो 'असफलता' के चलते फिरते प्रतीक हैं, और यदि हैं तो क्या ये केवल उन्ही का दोष है, उन्ही का अपराध है??
भारत में शिक्षा व्यवस्था का अधारभूत ढांचा है, सन 1835 में पारित Lord Macaulay का English Education Act . इस कानून की आत्मा में जो विचार था वह निम्न लिखित है...
There is a need to produce - by English-language higher education -" a class of persons, Indian in blood and colour, but English in taste, in opinions, in morals and in intellect" who could in their turn develop the tools to transmit Western learning in the vernacular languages of India.यानी कि शिक्षा का बुनियादी उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ़ एक ऐसा तबका पैदा करना था जो हुक्म बजा लाने में ही अपनी सार्थकता समझता हो और इसी मानसिकता से हम लोग आज तक ग्रसित हैं | एक स्वतंत्र जीवन के बदले हममें से अधिकांश लोग किसी की नौकरी बजा लाने में ही ज्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं और धीरे धीरे, हम गिरवी रख देते हैं अपने इरादों, अपने सपनों को तनख्वाह से मिलने वाली सुरक्षा के हाथों | इसीलिए शायद Nassim Nicholas Taleb ने कहा है कि...
'The three most harmful addictions are heroin, carbohydrates, and a monthly pay cheque.'
हमें आदत पड़ जाती है मासिक तनख्वाह की क्योंकि नौकरी हमारी कई तरह की मानसिकता का पोषण करती है, जो समाज, हमारा शिक्षण, हमारा परिवेश हमारे अंदर बचपन से बैठाता जा रहा है |हम सुरक्षित महसूस करते हैं क्योंकि हम भीड़ के साथ होते हैं, हम समाज के ढांचे के अनुरूप होते हैं|
ऐसी परिस्थिति को किसी शायर ने कुछ इस तरह बयान किया है.... ' ना होते हम तो ज़माने में कमी कौन सी होती, हज़ारों हम से जीते हैं, लहू के अश्क पीते पीते ||
HDFC Life द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 0-100 के पैमाने पर , Financial Freedom के मामले में भारतीय जनमानस का स्कोर सिर्फ 58.3 है | तो इसका क्या अर्थ है, इसका मतलब है यह है कि Financial Freedom अभी तक हमारी प्राथमिकताओं में बहुत पीछे है| हममें से अधिकांश लोग इसी गलतफहमी में जी रहे हैं कि अगर सारी उम्र ईमानदारी से नौकरी की तो अंत तक इतना कोष इकट्ठा कर लेंगे कि रिटायरमेंट असानी से कट जायेगा | ऐसे भोले भगत ज्यादातर मामलों में Inflation यानि मुद्रास्फीति को अथवा आकस्मिक खर्चों को अपने प्लान में सम्मिलित करना भूल जाते हैं |मगर इससे भी ख़तरनाक भूल होती है, नौकरी से होने वाली कमाई को स्थायी मान लेना |देखिए अपने चारों तरफ और जानिए किस तरह से 'जॉब सेक्योरिटी' (Job Security) के नाम पर हज़ारों, लाखों लोग छले गए हैं और छले जा रहे हैं | Acquisitions & Mergers के is ज़माने में lay offs एक वास्तविकता है जिसका सामना एक बहुत बड़ी संख्या में लोगों को करना पड़ रहा है | इसके अलावा पर profits के लिए बढ़ते दबाव के कारण down sizing भी एक सामान्य कॉर्पोरेट एक्सरसाइज (Corporate Exercise) बन चुकी है | इससे भी बढ़ कर हतोत्साहित करने वाली बात यह है कि जो लोग नौकरी में हैं, उन पर भी उसे बचाए रखने का भारी दबाव है | इन परिस्थितियों में ज़िन्दगी जी जा रही है या काटी जा रही है... ज़रा सोचिए |
किसको जिम्मेवार ठहराया जा सकता है, इतनी बड़ी संख्या में लोगों को पीड़ा पहुंचाने के लिए... मेरा मानना है, हमारी परवरिश, हमारी शिक्षा व्यवस्था द्वारा पैदा किए गए 'Employee Mindset' को इसका काफ़ी बड़ा श्रेय दिया जा सकता है | पैसे के प्रति पैदा की गयीं हमारी गलत धारणाएं, गलत भावनाओं ने हमें पैसे के प्रति इतना संवेदनशील बना दिया है कि हम पैसे के विषय में कोई खतरा उठाने के लिए तैयार नहीं होते हैं और भोगते रहते हैं, ज़िन्दगी भर उस अपराध की सज़ा जो हमने कभी किया ही नहीं..... हमारे पाठ्यक्रम, हमारे घरों में होने वाले विचार विमर्श, हमारे मित्र, उनके मित्र, समाज... सभी जगह, एक सुर में इसी सोच को अनुमोदित किया जाता है | हम अपने बच्चे को सचिन तेंदुलकर तो बनाना चाहते हैं पर उसे खेलने नहीं जाने देना चाहते कि कहीं उसकी पढ़ाई पे असर न पड़ जाए, उसके नंबर न कम आ जाएं क्योंकि कम नम्बरों से उसकी Employability पर असर पड़ता है | अपनी असफलताओं को महत्वाकांक्षा का जामा पहना कर, जुआ डाल देते हैं हम अपने बच्चों के कंधों पर, कोल्हू के बैलों की और एक पीढ़ी आगे बढ़ाने को |
मेरे इन विचारों से आप कितना सहमत, कितना असहमत हैं, comments लिख कर मुझे जरूर अवगत कराइयेगा |मुझे आपके अनुभव और विचारों से सीख कर अत्यंत प्रसन्नता होगी |
Sir I am agree with you that I am having same thinking but there is other backup for us ,
ReplyDeleteRegarding our Family we are Responsible so for that we have to do
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ReplyDeleteAgree but what to do.
ReplyDeleteIts a 80:20 rule. 20% of the people ruling whole population.
20% people hold that much of money which rest of 80% have.
Actually we always carry others thought process and most of the time waste our enery to think that what other will say.
dnt know whom to blame but we grow up with sense of insecurity and always struggle to get out of it.
And also give struggle to our kids in legacy.